Tuesday, August 26, 2014

तीसरी कड़ी : आओ कुछ और पक्षियों को सुनें और पहचानें!

 पक्षियों का अनोखा संसार (3)

आलेख और छायाचित्र : जितेंद्र भाटिया
तीसरी कड़ी : आओ कुछ और पक्षियों को सुनें और पहचानें!

चित्र 1: सुबह के गायन की रियाज़ करती सलेटी दुम फुदकी
कितना अच्छा लगता है जब सुबह पक्षियों की आवाज़ से हमारी नींद खुलती है. पक्षियों की इसी मिली जुली मधुर आवाज़ के लिए हिंदी में सुन्दर शब्द है ‘कलरव’. इसमें एक आवाज़ को दूसरी से पहचानना मुश्किल होता है. लेकिन फिर भी इसका स्वर कानों को भला प्रतीत होता है.
क्या ये पक्षी हमें जगाने के लिए सुबह-सुबह गाते हैं? नहीं, ऐसा नहीं है. वैज्ञानिकों का मानना  है कि पक्षियों का कलरव या अंग्रेजी में ‘सुबह का कोरस’ गर्मियों और बरसातों के आरम्भ में अधिक सुनाई देता है. यह समय पक्षियों के लिए घोंसले बनाने और उनमें अंडे देने का होता है. पक्षियों का सुबह का स्वर अक्सर अपने क्षेत्र का ऐलान करने या दूसरे पक्षियों को आगाह करने के लिए होता है कि “मैं यहाँ हूँ!”. कुछ उसी तरह जैसे रात का चौकीदार अपने डंडे को ‘ठक-ठक’ बजाता बीच बीच में आवाज़ लगाता चलता  है—‘जागते रहो!’

पक्षियों की यह आवाज़ अपने साथी को आकृष्ट करने के लिए भी हो सकती है. एक प्रयोग से पता चला कि सुबह का उजाला होने पर सबसे पहले ऊंची डालों के पक्षी बोलते हैं और उसके बाद नीचे के पक्षियों की बारी आती है. पौ फटने से पहले के चौथे पहर में तुमने कई बार मोरों के झुण्ड को ‘पियों! पियों!! पियों!!!’ के साथ चिल्लाते सुना होगा. हैं. मोर रात में बड़े बड़े पेड़ों की सबसे ऊंची डालों पर सोते हैं. यानी सुबह के समय पक्षियों के बोलने का  सीधा सम्बन्ध सूरज  की रोशनी से है.

पक्षियों के जीवन की दिनचर्या में दो सबसे महत्वपूर्ण क्रियाएँ हैं—भोजन और प्रजनन. इन दो के इर्दगिर्द ही उनका सारा जीवन निर्भर है. कुछ पक्षी अपने साथी को आकृष्ट करने के लिए आवाज़ के अतिरिक्त शरीर की भंगिमाओं का भी सहारा लेते हैं. मोर के आकर्षक नृत्य से कौन परिचित नहीं है. मोर का यह नृत्य दरअसल मोरनी को रिझाने के लिए होता है.  
 चित्र २: मोरनी को नाचकर रिझाता मोर
                                                    
        
राजस्थान में अजमेर के नज़दीक एक छोटा सा गाँव है सौंखालिया, जहाँ बरसातों के मौसम में विश्व स्तर पर एक दुर्लभ पक्षी ‘lesser florican’ का आगमन होता है. स्थानीय भाषा एवं हिंदी में इसे ‘खड़मोर’ कहते हैं क्योंकि यह मोर की ही जाति का एक पक्षी है. मादा को आकृष्ट करने के लिए नर खड़मोर मूंग के खेतों में ऊंची छलांग लगता है, फिर ‘धम्म’ से गिरकर फसल में छिप जाता है. साथ ही यह मुंह से आवाज़ भी निकलता है. कई बार तो  इन बारम्बार छलांगों से इसके पैर छलनी होकर खून से सन जाते हैं! 
चित्र 3: हवा में छलांग लगाता खडमोर
हमारे आसपास की दुनिया में कुछ पक्षी सिर्फ सुबह के समय बोलते हैं तो कुछ की सुपरिचित आवाज़ सारा दिन सुनाई देती रहती है. अमराइयों में लगातार कूकती कोयल की आवाज़ को सब पहचानते हैं. कोयल गर्मियों और बरसात के आरम्भ में सबसे अधिक कूकती है क्योंकि यह इसका जोड़े बनाने का समय होता है. डाल पर कूकती आवाज़ नर कोयल की होती है. ‘कोयले सी काली कोयल’, हम अक्सर कहते है, लेकिन गौरैया की ही तरह कोयल के नर और मादा देखने में बिलकुल अलग अलग होते हैं. केवल नर काला होता है, जबकि मादा कोयल बिलकुल भिन्न भूरी चितकबरी दिखती है.
चित्र 4: भूरी चितकबरी मादा कोयल
        
कोयल की ही तरह मोर और मोरनी के बीच का अंतर भी तुमने देखा होगा.
  
चित्र 5: मोरनी
  
बरसातों के मौसम में एक और बार बार सुनायी देने वाला पक्षी है पपीहा जिसकी क्रमशः तेज़ होती
जाती ‘पी-कहाँ! पी-कहाँ!! पी-कहाँ!!!’ की टेर सिर पर चढ़कर बोलती है. इसी के कारण अंग्रेजी में इसे ‘brain fever’ यानी ‘दिमागी बुखार’ भी कहते हैं. देखने में यह बाज़ से मिलता जुलता है और इसी लिए इसका दूसरा नाम है ‘common hawk cuckoo’.
चित्र 6: सामान्य पपीहे का बाज़ से मिलता जुलता चेहरा



लेकिन कोयल और पपीहे में एक और दिलचस्प समानता है. ये दोनों स्वयं घोंसला नहीं बनाते, बल्कि चुपके से कौए या छोटी सी फुदकी के घोंसले में अपने अंडे रख देते हैं. कौवा अंडे को अपना ही मानकर उसे सेता है. फिर जब अंडे से बच्चा निकल आता है तो वह उसे भोजन भी लाकर खिलाता है. अपना घोंसला न बनाने वाले इन पक्षियों को अंग्रेजी में  brood parasite या पर-पोषक-जीवी कहा जाता है.





                        चित्र 7: अपने से बड़े कोयल के बच्चे को खाना खिलाती धायी मां फुदकी
बात पक्षियों की बोली की निकली है तो चलते चलते तुम्हें अपने आस पास के एक और सुन्दर पक्षी से मिलवाते चलें. हो सकता है तुमने इसे देखा न हो, लेकिन इसकी आवाज़ तुमने अवश्य सुनी होगी. यह  ‘हुक!’....‘हुक!’....‘हुक!’ की सी एकसार आवाज़ में लम्बे समय तक बोलता चला जाता है. तुम्हें लगेगा जैसे कहीं से किसी ठठेरे के बर्तन पर काम करने की आवाज़ आ रही है! इसीलिये इसका नाम है ‘ठठेरा बसंता’, (अंग्रेजी में coppersmith barbet). इसके माथे पर तुम्हें सुन्दर लाल टीका और चोंच के नीचे पीला गला दिखेगा.
चित्र 8: आवाज़ लगाता ठठेरा या छोटा बसंता

इस टीके के कारण कुछ लोग इसे ‘पंडितजी’ नाम से भी जानते हैं. यह आकर में इतना छोटा होता है कि इसे ठीक से देखने के लिए तुम्हें दूरबीन की ज़रुरत पड़ सकती है. लेकिन अगली बार जब तुम्हें इसकी ‘हुक!’....‘हुक!’....‘हुक!’ सुनाई दे तो इसे ढूँढने की कोशिश ज़रूर करना.

तो इस बार बस इतना ही. दुबारा मिलने पर हम तुम्हें पक्षियों के नामकरण की देशी और वैज्ञानिक पद्धतियों के बारे में बताएँगे.      

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